मेरी समझ में, हमारे भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था का प्रारंभ एक गहरी समझ के साथ किया गया था, जो इंसान की प्रवृत्ति और स्वभाव के अनुसार बनाई गई थी। हिंदू धर्म के प्राचीन ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, जिसमें यह बताया गया कि व्यक्ति की जाति नहीं, बल्कि उसका वर्ण होता है। आज जो जाति और उपश्रेणियों का प्रचलन है, वह बाद में विकसित हुआ और एक ही वर्ण के भीतर अपने को बड़ा-छोटा दिखाने की प्रवृत्ति से उत्पन्न हुआ।
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वर्ण और गोत्र की भूमिका
हम सभी किसी न किसी वर्ण से जुड़े हैं – चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र हो। इसके साथ ही, हर व्यक्ति का एक गोत्र होता है, जो उसके कुल और पितृ-ऋषि की परंपरा को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी का गोत्र भारद्वाज है, तो इसका अर्थ है कि उनके पूर्वज भारद्वाज ऋषि की वंश परंपरा से जुड़े हैं। यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि एक ही गोत्र विभिन्न वर्णों में भी देखने को मिल सकता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति पर आधारित थी, न कि उसके कार्य या पेशे पर।
वर्ण व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ?
वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति और रुचि के आधार पर उसे कार्य सौंपना था। उदाहरण के लिए, कल्पना करें कि किसी ऋषि के चार संताने थीं, और प्रत्येक का स्वभाव भिन्न था। ऋषि ने उन संतानों को उनकी प्रवृत्ति के अनुसार कार्य सौंपा। एक को शिक्षा और वेदों के अध्ययन में लगाया गया, दूसरे को समाज की सुरक्षा में, तीसरे को व्यापार में, और चौथे को सेवा कार्यों में।
इस प्रकार, धीरे-धीरे समाज में अलग-अलग समूह बनने लगे, और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी गहरी होती चली गई। लोगों ने अपने पूर्वजों के कार्यों को ही अपनाया और उन्हीं में कुशलता प्राप्त की। समाज में यह कार्य-रेखा पीढ़ी दर पीढ़ी जड़ पकड़ने लगी। यही कारण है कि हमें आज भी एक ही क्षेत्र में एक विशेष कार्य से जुड़े लोगों की बस्तियाँ देखने को मिलती हैं। जैसे कि एक गाँव केवल नाइयों का हो सकता है, दूसरा व्यापारियों का, एक ब्राह्मणों का और एक क्षत्रियों का।
कैसे उपविभाजन और उपश्रेणियों में बदल गई वर्ण व्यवस्था?
समय के साथ, विभिन्न कार्यों के भीतर भी उपविभाजन होने लगे। जैसे वैश्य वर्ण में व्यापारी, सुनार, तेल निर्माता, लोहार आदि अलग-अलग उपश्रेणियों में बँट गए। एक ही कार्य से जुड़े लोग एक स्थान पर बसने लगे और पीढ़ियों से अपनी कला को आगे बढ़ाते रहे। इस प्रकार, एक ही वर्ण के भीतर कई उपश्रेणियाँ बनने लगीं, और यह व्यवस्था धीरे-धीरे जाति (जाति शब्द स्पेनिश और पुर्तगाली शब्द “कास्टा” से लिया गया है, जिसका अर्थ है “नस्ल, वंश या नस्ल”) के रूप में परिवर्तित हो गई।
इस क्रम में और विशेष चर्चा अगले अंक में।